छत्तीसगढ़ (रायपुर) । : छत्तीसगढ़ सरकार द्वारा आदिवासियों को वनभूमि पर अधिकार का क़ानूनी पट्टा दिए जाने के घोषणा के बाद बस्तर के दूरस्थ अंचलों में वर्षों से खड़े हरे भरे वृक्षों की बली देने की प्रथा का आरंभ हो गया है।
इसके लिए स्थानीय आदिवासियों समेत डिगर लोगों में भी वनभूमि के नाम पर पट्टा पाने का भूत सवार हो गया है।
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हालात यह हैकि बस्तर जे दूरस्थ अंचलों में वर्षों से खड़े साल – सागौन के घने जंगलों के वृक्षों को सुखाकर, जलाकर व इन्हें काटकर वनभूमि पर कब्ज़ा करने का दौर भी तेज़ हो गया है।
बस्तर के दूरस्थ अंचलों में जंगल को काटकर वनभूमि पर कब्ज़ा करने का कार्य बेधड़क जारी है।
सकाम में ग्रामीणों की निर्भयता का एक कारण यह भी हैकि अंचल के घने जंगलों में नक्सलियों का दबदबा है, जिस नक्सली भय के कारण वन अमले का आजतक इन घने जंगलों में आमद तक नही हुआ है।
कुछ ख़ास लोग जो राजनैतिक धाक रखते हैं व जिन्हें शब्द “आदीवासी” का बेहतर राजनैतिक इस्तेमाल आता है, जिसके कारण आजतक वास्तविक आदिवासी समाज का उत्थान सपना मात्र रह गया है। इन के संरक्षण में वनों की अवैध कटाई निरंतर जारी है।
राष्ट्रीय हरित नियामक आयोग व पर्यावरण मंत्रालय की अनुमति बिना ही वनभूमि पट्टा बांटने का छत्तीसगढ़ सरकार की घोषणा भविष्य के लिए कही अभिशाप के रूप में सामने न आये यह भय प्रत्येक जागरूक मतदाताओं के मन को सता रही है।
मुझे लगता हैकि इस मामले में बिना समय गवाएं देश के सर्वोच्च संस्थान “माननीय सर्वोच्च न्यायालय” को स्वतः संज्ञान लेने की आवश्यकता है।
आखिर आदीवासी शब्द का इस्तेमाल करने का अधिकार किसका, सर्वोच्च न्यायालय को इसके लिए मापदण्ड तय करने हेतु स्वतः संज्ञान लेना चाहिए।
वर्षों से वनभूमि में निवास करने वाले लोगों को संवैधानिक रूप से वनवासी कहै जाता था परंतु वर्तमान समय में इन्हें आदीवासी शब्द से संबोधित किया जाने लगा है।
पर्यावरण संरक्षण की दृष्टिकोण से सर्वोच्च न्यायालय को स्वतः संज्ञान लेते हुए शब्द आदीवासी के उपयोग हेतु मापदण्ड तय करने हेतु सरकार पर दबाव बनाने की आवश्यकता है।
सवाल सीधा हैकि आखिर कितने वर्षों से लगातार वनभूमि पर निवास करने वाले परिवार या समुदाय को स्वयं के नाम के पहले आदीवासी शब्द लिखने का अधिकार है यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए।
वर्तमान समय में जो एसटी/एससी वर्ग की जनता है जो लगभग चार पीढ़ियों से नगरों में निवास करते आ रहे हैं व जो जीविकोपार्जन के लिए वनोपज पर निर्भर भी नही हैं वरण वे सरकारी सेवा में हैं या बड़े व्यवसायी वर्ग से हैं या सामान्य जीवन भी व्यतीत कर रहे हैं क्या उन्हें आदीवासी शब्द के इस्तेमाल का संवैधानिक अधिकार है।
धृतराष्ट्र की तरह यदि वनभूमि अधिकार पट्टा बांटने के निर्देश के सामने यदि सभ्य समाज जानबूझ कर अपनी आखों पर पट्टी बांधे चुप बैठे रहा तो वह दिन दूर नही होगा जब बाइसवें सदी में ओरतिदिन जीवित रहने के लिए ऑक्सीजन सिलेंडर खरीदने को आम जनता मज़बूर न हो जाये।
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