गोरखपुर (एके जायसवाल), हरिवंश पुराण के अनुसार महाभारत- खिलभाग हरिवंश के 33वें अध्याय पृष्ठ संख्या 159 पर *नारद उवाच*
न नूनं कार्तवीर्यस्य गतिं यास्यन्ति पार्थिवाः।
ज्ञैर्दानैस्तपोभिर् विक्रमेण श्रुतेन च।।20
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सहि सप्तसु व्दीपेषु खड्गी चर्मी शरासनी।
रथी व्दीपाननुचरन योगी संदृश्यते नृथिः।।21
अनष्टद्रव्यता चैन न शोको न च वइभ्रमः।
प्रभावेण महाराज्ञः प्रजा धर्मेण रक्षतः।।22
पच्जाशीतिसहस्त्राणि वर्षआणां वै नराधिपः।
स सर्वरत्नभाक सम्राट चक्रवर्ती बभूव ह।।23
भगवान नारद जी कहते है कि हे राजन् अन्य राजा लोग यज्ञ,दान, तपस्या, पराक्रम और शास्त्रज्ञान मे कार्तवीर्य अर्जुन की स्थिति में पहुंच सकते हैं।।20।।
कार्तवीर्य योगी था इसीलिए मनुष्यों को सातों व्दीपों मे डाल-तलवार धनुष बाण और रथ लिए सदा सब ओर विचरता दिखाई देता था।। 21।।
धर्म-पूर्वक प्रजा की रक्षा करने वाले महाराज कार्तवीर्य के प्रभाव से किसी का धन नष्ट नहीं होता था। न-तो किसी को शोक होता न कोई भ्रम में पड़ता था।।22।।
वह कार्तवीर्य पचासी हजार वर्षों तक सब प्रकार के रत्नों से सम्पन्न चक्रवर्ती सम्राट रहा।।23।।
अन्य पुराणों के मतानुसार
स्मृति पुराण एवं मत्स्य पुराण में वर्णन है कि भगवान विष्णु के चौबीसवें अवतारों में से एक चक्र सुदर्शन अवतार भगवान कार्तवीर्यार्जुन थे।
किसी भी धार्मिक ग्रंथों श्लोक ,चौपाई ,छंद,आदि मे मृत्यु के सम्बन्ध में प्रमाण के रूप में कहीं नहीं वर्णन मिलता है परसु राम ने भगवान कार्तवीर्यार्जुन का वध किया था भ्रांतियां फैलाई गई कि जो निराधार व भ्रामक कहानियां गढी गई हैं पूर्वा-ग्रसित मनुवादी विचार-धारा के लेखकों ने भ्रांतियां फैलाई है।
महाराजा कृर्तवीर्य का विवाह काशी नरेश सत्यवादी राजा हरिश्चन्द्र की पुत्री राजकुमारी पद्मनी से हुआ पद्मनी धर्म-परायण पतिव्रता पत्नी थी माता सती अनुसुइया ने पद्मनी एवं कृर्तवीर्य को अनुष्ठान ब्रज-धारण कर तपस्या करने को कहा था तपस्या करने पर आराध्य देव ने प्रसन्न होकर इच्छित वरदान दिया कुछ समय बाद ही रानी पद्मनी ने गर्भ धारण किया माता सती अनुसुइया ने गर्भस्थ शिशु को सद्-धर्म की शिक्षा दी थी। कार्तिक मास शुक्ल पक्ष सप्ती श्रवण नक्षत्र के शुभ मुहूर्त दिन रविवार सतयुग के अंतिम पहर एवं तेत्रायुगके उदय सायं-काल में महाराजा कृर्तवीर्य-महारानी पद्मनी ने अलौकिक तेज से परिपूर्ण एक सुन्दर वालक ने जन्म लिया जिनका नाम कार्तवीर्य रक्खा गया। आगे इन्हें हजारों नाम से पुकारा जाने लगा जैसे-श्री राजराजेश्वर कार्तवीर्यार्जुन, सहस्त्रार्जुन,सहस्त्रावाहु आदि से तीनों लोकों में विख्यात हुए धार्मिक ग्रंथों एवं पुराणों में अनेक गाथाएं से परिपूर्ण वर्णन हैं।
श्री हरिवंश पुराण में वर्णन है कि-
*तृषितेन कदाचित स भिक्षितच्श्रित्रभिनुना।*
*स भिक्षामदादद् वीर: सप्तव्दीपान विभावसो: ।। 38*
*पुराणि ग्रामधोषांच्श्र विषयांच्श्रैव सर्वश :।*
*ज्वालामुखी तस्य सर्वाणि चित्रभानुर्दिधक्षया।।39*
*स तस्य पुरुषेन्द्रस्य प्रभावेण महात्मन:।*
*ददाह कार्तवीर्यस्य शैलांच्श्रैव वनानि च।।40*
अर्थात भगवान अग्नि देव भूखे प्यासे महाराजा कार्तवीर्य से भिक्षा मांगी *(कहा जाता है सूर्य देव में उर्जा की कमी हो रही थी वनों में अनेक औषधीय पेड़-पौधे खनिजों से परिपूर्ण थे उसी से उर्जा लेने के लिए भिक्षा मांगने गए थे उसी बहाने महाराज कार्तवीर्यार्जुन की परीक्षा भी ले रहे थे)*
तब महाराज ने सातों दीपों, नगर गांव गोष्ठी सारा राज्य का वन भगवान अग्निदेव को भिक्षा में दे दिया। अग्नि देव सर्वत्र प्रज्वलित हो उठे और पुरुष प्रवर महात्मा कार्तवीर्य के प्रभाव से समस्त पर्वतों के वनों को जलाने लगे। अग्नि ने दुसरे वनों की भांति वशिष्ठ मुनि की सूनी पड़ी आश्रम को भी जला कर राख कर दिया।
भगवान अग्निदेव को वनों के जलने से ऊर्जा प्राप्त हो गई वह चले गए जब वशिष्ठ मुनि को आश्रम जलने की खबर मिली तो वह क्रोध में आकर बिना सोचे समझे कार्तवीर्यार्जुन को श्राप दे दिया कि जो तुम्हारे भुजाओं में ताकत है वह कोई भृगवंशी तुम्हारी भुजाओं की ताकत क्षीण कर देगा।जब यह बात भगवान अग्निदेव को मालूम हुआ तो उन्होंने उसी समय से कार्तवीर्यार्जुन एवं उसकी राजधानी महिष्मति की सुरक्षा स्वयं करने लगे क्योंकि महाराजा कार्तवीर्य ने अग्नि देव को भिक्षा मांगने पर दें दिया था इसीलिए अग्नि देव ने सुरक्षा का संकल्प लिया था। उक्त वर्णन कालीदास जी ने भी रघुवंश महाकाव्य का इन्दूमती स्वयंवर प्रसंग है।
*न तस्य वित्तनाशोऽस्ति नष्टं प्रतिलभेच्च से:।*
*कार्तवीर्यस्य तो जन्म कीर्तयेदिह नित्यश:।।56*
अर्थात जो प्रतिदिन कार्तवीर्यार्जुन के जन्म के वृत्तांत कहता एवं सुनता है उसके धन का नाश नहीं होता है और उसकी खोई हुई वस्तुएं भी मिल जाती है।
*स्वयं परशुराम जी ने माता सीता के स्वयंवर के समय में भगवान श्रीराम के द्वारा टूटी हुई धनुष के प्रसंग में परशुराम ने लक्ष्मण जी से संवाद करते हुए कहा- भुजबल भूमि भूप बिनु किन्हीं। बिपुल बार महिदेवन्ह दीन्ही।। सहस्त्रबाहु भुज छेदन हारा।परसु बिलोकु महीप कुमारा|| इसका वर्णन तुलसीकृत रामायण के बालकांड के 244 / 245 पर भगवान श्रीराम, लक्ष्मण परशुराम संवाद मे पढा, देखा जा सकता है परशुराम जी ने स्वयं सिर्फ भुजाओं का छेदन करने की बात कही है*शेषाअवतार लक्ष्मण जी से,यह नहीं कहा कि मैने सहस्रवाहु का वध किया है, तुलसीदास जी ने स्वयं रामचरितमानस में उल्लेख किया है*
कालिदास ने भी रघुवंश महाकाव्य में इस बात का उल्लेख किया है कि–
*अकार्य,चिंता ,समकालमेव,प्रादुर्भवच्चाप धर: पुरस्तात।*
*अन्त: शरीरेष्वपि य: प्रजानां प्रत्यादिदेशाविनयं विशेषता।।*
अन्य यह कि कार्तवीर्यार्जुन अधर्म की बात सोचने वालोें के समक्ष धनुष-बाण सहित स्वंय खड़े होकर उनके दुष्प्रवृत्रि का निवारण कर देते थे। कालिदास जी के कथन की पदम् पुराण में किये गये उल्लेख की पुष्टि होती है।
पुराणों में वर्णन है कि-
*श्री दत्तो, नारदो, व्यासो, शुकन्य पवनात्मज:।*
*गोरक्ष: कार्तवीर्यश्च,त्वित्येते स्मृति गाभिन: ।।*
अर्थात श्री दत्तात्रेय, नारद जी,व्यास जी, शुकदेव जी, हनुमान जी, गोरक्षनाथ जी और कार्तवीर्य जी ये सातों स्मृतिगामी देव कहे गए हैं क्योंकि यह देवता स्मरण करने मात्र से ही आराधकों के कष्टों का हरण करते हैं।
कबीर दास के बीजक आठवें शब्द की 11 वीं पंक्ति में वर्णित है परशुराम क्षत्रिय नहीं मारे छल माया किन्हीं| अर्थात परशुराम छल छद्म मायाजाल मायावी उपाय करने के बाद भी पराजित नहीं कर सके
*वर्तमान में इसका साक्ष्य महेश्वर स्थित सहस्त्रबाहु की समाधि पर मंदिर है* इससे स्पष्ट है सहस्त्रवाहु के पुत्र जयध्वज के राज्याभिषेक के बाद तपस्या योग के बाद समाधि ली थी इसलिए यह समाधि स्थल मंदिर कहलाता है आज भी सभी समाज के लोग मन्नत मानते हैं मन्नत पूर्ण होने पर देसी घी का चिराग जलाने हेतु देसी घी दान करते हैं जो निरंतर चिराग जलता रहता है सहस्त्रबाहु के संघार की मान्यता का खंडन करते हुए *महाकवि कालिदास जी द्वारा लिखित रघुवंश महाकाव्य का इंदुमती स्वयंवर प्रसंग है इनके पद 6/42 जिसका भावार्थ है कि सहस्त्रवाहु ने परशुराम के फरसे की तीखी धार को भी अग्निदेव की सहायता से कमल पत्र के कोमल धार से भी कम था क्योंकि इनकी राजधानी महेश्वर की रक्षा स्वयं अग्निदेव खुद करते थे इसलिए महेश्वर में सहस्त्रवाहु को हराना असंभव था*
एक अन्य घटना का विवरण *महाप्रतापी राक्षस रावण ने भगवान इंद्र, वरुण आदि देवताओं को बन्दी बनाने वाले रावण को महाराजा कार्तवीर्यार्जुन ने बन्दी बना लिया था उनको कौन हरा सकता था। अबतक किसी भी धार्मिक ग्रंथों एवं पुराणों में वर्णन नहीं है कि किसी अवतारित पुरुष या किसी चक्रवर्ती सम्राट को किसी ने वध किया हो।*
कुछ पुराणों में अलग-अलग मत हैं |देवी भागवत पुराण मे उल्लेख है कि सहस्त्रावाहु और परसु राम मे युद्ध हुआ ही नहीं किसी ग्रंथों में सहस्त्रार्जुन के पुत्रों एवं भृगुवंशियों द्वारा धन की खींचातानी के कारण युद्ध हुआ था जगदग्नि ऋषि का वध सहस्रवाहु के पुत्रों व्दारा हुआ था
बह्म वैवर्त पुराण के अनुसार युद्ध में सहस्त्रार्जुन ने अनेकों बार परशुराम को मूर्छित किया था सहस्त्रार्जुन के हाथ में सुरक्षा कवच था एवं भगवान विष्णु के चौबीसवें अवतारों में से एक थे।
*वायु पुराण का अप्रकाशित खंड महिष्मति महात्म के अध्याय नंबर 13 में वर्णित है जब सहस्त्रार्जुन के चार भुजा से थे तो अपने गुरु दत्तात्रेय का स्मरण किया तो भगवान दत्तात्रेय ने सहस्त्रबाहु को स्मरण कराते हुए कहा कि चक्रा अवतार का स्मरण करो तो भगवान शंकर तुरंत प्रकट हो गए सहस्त्रबाहु से बोले जाओ नर्मदा नदी में स्नान करके आओ जब सहस्त्रबाहु नर्मदा नदी से स्नान करके भगवान शंकर के सम्मुख आए तो भगवान शंकर ने उन्हें अपने मैं समाहित कर लिया*
उसी स्थान पर आज श्री राज राजेश्वर भगवान सहस्त्रार्जुन का मंदिर का निर्माण हुआ है।
पुराणों के अनुसार सात 7 चक्रवर्ती सम्राटों में गणना की जाती है।
*भरत अर्जुन मांधातृ भागीरथ युधिष्ठिर:।*
*सगरो नहुषश्च सत्तेत चक्रवर्तिन: ।।* 1.भरत 2. कार्तवीर्यार्जुन 3.मांनधाता 4.भगीरथ 5.युधिष्ठिर 6.सगर एवं 7.नहुष नाम बताए गए हैं।
युद्ध में अगर कार्तवीर्यार्जुन पराजित हुए होते हैं या उनका वध किया गया होता तो चक्रवर्ती सम्राटों में भगवान कार्तवीर्यर्जुन की गणना नहीं की जाती, इससे भी प्रमाणित होता है कि उनका वध नहीं हुआ था एवं शास्त्रों के अनुसार जिस महापुरुष में 6 गुणों का समावेश हो संपूर्ण ऐश्वर्य,धर्म ,यश,तप यज्ञ,एवं दान गुण से परिपूर्ण थे। इसीलिए युद्ध में कार्तवीर्यार्जुन को पराजित नहीं कर सकता। धार्मिक ग्रंथों एवं पुराणों में छः गुणों का वर्णन किया गया है। कार्तवीर्यार्जुन वैराग्य से परिपूर्ण थे ग्रंथों में भगवान विष्णु के अंश चक्रा अवतार कार्तवीर्यार्जुन को बताया गया है इसीलिए भगवान के रूप में संबोधित किया जाता है|
उपरोक्त लेख श्री राजराजेश्वर कार्तवीर्यार्जुन पुराण, श्री हरिवंश पुराण एवं अन्य पुराणों के मतानुसार लिखा गया है।
उक्त लेखक-ध्रुवचंद जायसवाल, अखिल भारतीय जायसवाल सर्ववर्गीय महासभा की इकाई अध्यक्ष उत्तर प्रदेश
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